धर्म कर्म: इस समय प्रभु के पूरी ताकत वाले जयगुरुदेव नाम के प्रचारक, अंत समय में जीवात्मा की संभाल करने वाले, सब तकलीफों में असरदार जयगुरुदेव नाम ध्वनि रूपी महामंत्र देने वाले, बरकत और मुक्ति-मोक्ष देने वाले, इसी कलयुग में ही सतयुग को लाने में दिन-रात लगने और लगाने वाले, मन को कण्ट्रोल में करने का तरीका बताने वाले, उपरी लोकों के नज़ारे दिखाने वाले, इस समय के महापुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने बताया कि बहुत लोगों ने जयगुरुदेव नाम के चमत्कार के अपने निजी अनुभव बताये।

अन्न दोष सबसे बड़ा दोष है

महाराज जी ने उज्जैन आश्रम में बताया कि सतसंग सुनते रहेंगे तो संग दोष से बचे रहेंगे। और अन्न दोष, यह सबसे बड़ा दोष है। और इसका असर खूब आता है और रोज आता है। संग तो कभी-कभी पड़ता है। जैसे आप गांव के लोग खेती करते हो। आप गांव में रहते हो, दिन भर मेहनत करते हो, अपना खेती का काम करते हो और शाम को आते हो, भोजन करके सो जाते हो। किसका साथ रहता है? परिवार वालों का। वही अड़ोसी-पड़ोसी, गांव वालों का साथ ज्यादा से ज्यादा मिलेगा। लेकिन जो लोग बाहर निकलते हैं उनको साथ हर तरह के लोगों का मिलता है। आप जो इसमें ज्यादातर गरीब किसान लोग हो तो आप तो समझो बच जाते हो लेकिन अन्न के दोष से नहीं बच सकते हो। साथ कभी-कभी पड़ता है, स्थान कभी-कभी बदलता है। लेकिन अन्न तो रोज चाहिए। सतयुग में हड्डी में प्राण था। त्रेता में लहु (खून) में प्राण था और द्वापर में त्वचा खाल में प्राण था। और कलयुग में अन्न में प्राण आ गया। तो अन्न तो रोज चाहिए। अब अगर अन्न दूषित आ गया, इधर-उधर से बगैर मेहनत की कमाई का खाए तो बुद्धि तो भ्रष्ट होनी ही होनी है। और आश्रम वासियों को तो विशेष इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यहां पर जो अन्न आता है, वह तरह-तरह के लोग देते हैं।

कुछ लोग तो इस हिसाब से देखते हैं कि हम मेहनत करते हैं, हमारी आमदनी होती है, हम अनाज पैदा करते हैं। इसका कुछ अंश निकाल दिया जाए जिससे यह शुद्ध हो जाए। तो जहां भी, जो भी परिवार के आदमी के ऊपर ये लगे, उसकी बुद्धि सही रहे। कुछ ये सोच कर देते हैं कि कोई तकलीफ या रोग हो गया, कहीं कोई बात हो गयी, मुकदमेबाजी में फंस गए आदि तो ये संकल्पित धन होता है। ज्यादातर लोग हवन, पूजा पाठ, अनुष्ठान संकल्प बना कर करते हैं। पितृपक्ष में लोग भोजन कराते हैं? किसके लिए कराते हैं? हमारे जो पितर कोई प्रेत आत्मा में चले गए हो तो खिलाएंगे। जो यह खाएंगे, वह उनको मिलेगा। इसी तरह से संकल्प बनाते हैं। तो यह जो होता है संकल्पित धन होता है। इसलिए कहा गया साधकों को भैरव पूजा, देवी-देवता पूजा आदि का जो संकल्पित भोज होता है, उसको और उस पर चढ़ाया हुआ नहीं खाना चाहिए। सतसंगियों को जो साधना करते हैं अपने को सतसंगी मानते हैं, जो सत्य का संग, परमात्मा सत्य है, उसका संग करना चाहते हैं उनको नहीं खाना चाहिए। ये संकल्पित धन का जो व्यक्ति खाता है, उसका असर खाने वाले पर भी पड़ता है।

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