धर्म कर्म; इस समय के पूरे समरथ सन्त सतगुरु दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि निचले लोकों में बहुत रुकावट आती है। क्योंकि देवी-देवताओं का काम ही यही है कि इन (जीवात्माओं) को ऊपर जाने मत देना। तो वहां तक गुरु की ज्यादा जरूरत पड़ती है। कबीर साहब के गुरु रामानंद जी महाराज थे लेकिन उनको सतलोक तक का बोध ज्ञान नहीं था। रुकावट ज्यादातर इधर ही रहती है तो इसीलिए उनको उन्होंने गुरू निमित्त बनाया कि इनकी मदद हमको मिलेगी, बाधा आएगी तो गुरु हमारे सामने रहेंगे। जब हम गुरु किए हुए रहेंगे तो हमको दिक्कत नहीं आएगी। क्योंकि निगुरा मुझको न मिले, पापी मिले हजार, एक निगुरा के शीश पर, लख पापी का भार। लाख पापियों का बोझा निगुरा के सिर पर होता है। जो गुरु नहीं करता है, उसके ऊपर पापों का बोझा होता है क्योंकि- गुरु बिन मैलो मन को धोई। बगैर गुरु के इस गंदगी को, कर्मों के पाप को कोई धोने वाला नहीं होता है।

निगुरा के सिर पर लाख पापियों का बोझा होता है

निगुरा अंदर नहीं जा सकता। देखो व्यास के लड़के सुखदेव थे, गुरु नहीं बनाए थे। अपने बल पर साधना करते थे लेकिन विष्णु लोक के दरवाजे से अंदर नहीं घुस पाते थे। देवी-देवताओं के तरफ से चले गए रुकावट आई, उन्होंने रुकावट को हटा दिया, शिव लोक, ब्रह्मा लोक से भी निकल गए लेकिन विष्णु लोक के दरवाजे से लौटा दिए जाते थे। लेकिन अगर अंदर साधना में प्रथम स्थान, दूसरे स्थान तक भी गुरु को जानकारी है तो फिर गुरु वहां (अंदर में) मिल जाते हैं फिर निकलने में दिक्कत नहीं होती है। वो लोग भी देखते हैं कि भाई जब इसके पास पासपोर्ट वीजा है तो इनको जाने दो। तो वीजा पासपोर्ट पाने के लिए गुरु से मोहर लगवानी पड़ती है। तो प्रेमियो! जिनके नाम को लो, उनके रूप पर ही दृष्टि को टिकाओ, इधर-उधर दृष्टि नहीं होनी चाहिए। और नाम में भी कुछ लोग गलती करते हैं। नाम याद ही नहीं ठीक से हो पाता है। लोगों से पूछते भी नहीं है। तो नाम जो (मन में, समझ में) आ गया, उसी की माला फेर लिये तो उससे भी फायदा नहीं होता है। कि जैसे मान लो तीन दरवाजों में से किसी एक दरवाजे से जाना है तो उसी गेट के चौकीदार को आवाज लगाओगे तो वो उसी दरवाजे को खोलेगा। दुसरे या तीसरे दरवाजे के चौकीदार को आवाज लगाओगे तो वो आपके पहले गेट को नहीं खोलेंगे। इसलिए नाम और रूप, दोनों इधर का उधर नहीं होना चाहिए। जिसके नाम को लो, उसके रूप को याद करो।

सुमरिन करने से क्या होता है?

सुमिरन करने से वो देखते हैं और मदद करते हैं। और प्रार्थना करने से क्या होता है? एक तरह से दुनिया की तरफ से थोड़े समय के लिए ध्यान हटता है। जिनका प्रार्थना किया जाता है, उनकी तरफ मन लगता है तो ध्यान इधर से हटता है। एक तरह से दुनिया की तरफ से मुख मुड़ता है। और जब सुमिरन सही हो जाता है, सुमिरन की आदत बन जाती है तो ध्यान और भजन में भी मन लगने लगता है। क्योंकि मन का सिमटाव उसमें ज्यादा होता है। मन का विस्तार पूरे शरीर के अंग-अंग में है। इसलिए जब मन इधर नीचे से हटता है तो ऊपर की तरफ खींचता है। आत्मा और मन एक साथी बन गए हैं। शरीर को चलाने वाली शक्ति, आत्मा है। उसी का प्रकाश रोशनी ताकत, अंगूठे तक है तो इधर से मन भी यहीं लगा हुआ है। जैसे पैर में ठंड लगता है तो मन ही तो ठंड महसूस कराता है। मन ही गर्मी, ठंडी, मन ही सब कुछ महसूस कराता है। मन ही भूख लगाता है नहीं तो आदमी खाने को भूला रहता है, जब काम में लगा रहता है, जब ट्रेन पकड़ना होता है, धूप देखता है? ड्यूटी ठंडी के महीने में रात को 12 बजे करनी होती है तब ठंडी वो देखता है? जब रहता है कि हमको 12 बजे कहीं पहुंचना है तो केवल पहुँचने पर ही ध्यान रहता है, और जब वहां पहुंच जाता है, तब कहता है अरे ठंडी, धूप लगती है। ऐसे मन जिसमें लगा रहता है, वही काम कराता है। तो मन जब इधर से हट कर उधर उपर कि तरफ जाएगा तब ध्यान बनेगा। क्योंकि शरीर से पूरी शक्ति खींच कर दोनों आंखों के बीच में जहां पर वो सुराख है, वहां लाते हैं। उससे कर्म कटते हैं। वो दबाव जब बनता है तब पर्दा हटता है, वह गेट खुलता है जिससे इस पिंड (शरीर) से जीवात्मा को निकलने का, अंड लोक में, ब्रह्मांड लोक में जाने का मौका मिलता है। तो ध्यान में भी मन को रोक करके ध्यान लगाना चाहिए। भूल जाना चाहिए शरीर को कि हमारा शरीर भी है। थोड़े समय के लिए सबको, जर, जमीन, जोरू यानी औरत को भूलना चाहिए। समझ लेना चाहिए कि मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो बिल्कुल अब दुनिया के लिए खत्म हो गया, दुनिया में रह नहीं गया हूं, एक तरह से सब कुछ भूल कर के सारी आवश्यकताओं जरूरतों को भूल करके ध्यान लगाना चाहिए। क्योंकि मन जरूरतों की तरफ, खाने-पीने, ऐश-आराम, सुख-सुविधा की तरफ ही जाता है तो उधर से बिल्कुल ध्यान हटाना पडता है। जब आदमी सोच लेता है कि हमको अब नहीं जरूरत है, हम मर गए, मेरा कुछ नहीं है तो थोड़ी देर के लिए मरना पड़ता है। जीवात्मा जब निकलती है तब शरीर निर्जीव हो जाता है और ध्यान में भी शरीर निर्जीव हो जाता है, तब भूख-प्यास, टट्टी-पेशाब भी नहीं लगता।

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