लखनऊ। 15 जनवरी को यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती का 65वां जन्मदिन है। कोरोना काल में मायावती ने अपने जन्मदिन को सेलिब्रेट करने के लिए दिशा निर्देश जारी किये हैं। उन्होंने अपील की है कि इस महामारी के काल में कार्यकर्ता उनका जन्मदिवस सादगी और जनकल्याणकारी दिवस के रूप में मनाए। बसपा सुप्रीमो मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रही हैं। वे एक सख्त प्रशासक के रूप में भी जानी जाती है।  लेकिन मौजूदा राजनीतिक परिवेश में उनके सामने चुनौती अपने वोट बैंक के साथ ही पुराने नेताओं को अपने साथ रखने की भी है। 2012 विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद आज 9 साल का समय बीत चुका है। लेकिन किसी भी चुनावों में पार्टी को जीत हासिल नहीं हुई है। आलम तो यह है कि 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी की अगली रणनीति क्या होगी इसको लेकर भी असमंजस की स्थिति बानी हुई है।

अपने तीन दशक से लंबे के सियासी सफर में ऐसा पहली बार है कि उन्हें लगातार चार चुनाव हारने और पार्टी नेताओं की बगावत से जूझना पड़ा है। 2012 से अब तक मायावती अपने कई दिग्गज नेताओं को खो चुकी हैं,  इतना ही नहीं उनपर पैसे लेकर टिकट देने का आरोप भी लगा। बावजूद इसके मायावती ने अपने वोट बैंक को अपने पास संभाल के रखा है। बता अलग है कि उनका वोट बैंक सीटों में तब्दील नहीं हो सका। गेस्ट हाउस कांड को भुलाकर 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी से गठबंधन तो किया, लेकिन इसका उन्हें लाभ मिला नहीं। 2014 में जहां वे शून्य पर थीं। 2019 में 10 सीटें जीतीं, लेकिन उसके बाद हार का ठीकरा अखिलेश यादव पर फोड़कर गठबंधन तोड़ दिया। अब एक साल बाद एक बार फिर अग्नि परीक्षा है। क्या वे इस बार असदुद्दीन ओवैसी और ओमप्रकाश राजभर के साथ मिलकर मैदान में होंगी? यह एक बड़ा सवाल है।

ऐसा रहा है पॉलिटिकल करियर
राजनीतिक जीवन के लंबे अनुभवों से गुजरने वाली मायावती 1989 में पहली बार सांसद बनी थीं। 1995 में वह अनुसूचित जाति की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। राजनीति में उनका प्रवेश कांशीराम की विचारधारा से प्रभावित होकर हुआ। राजनीति में आने से पहले मायावती शिक्षिका थीं। 21 मार्च 1997 को मायावती ने दूसरी बार यूपी की मुख्यमंत्री की कमान संभाली। 3 मार्च 2002 को मायावती तीसरी बार यूपी की मुख्यमंत्री बनीं और 26 अगस्त 2002 तक पद पर रहीं। 13 मई 2007 को मायावती ने चौथी बार सूबे की कमान संभाली और 14 मार्च 2012 तक मुख्यमंत्री रहीं।

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2001 में पार्टी की मिली कमान 
2001 में बसपा प्रमुख एवं पार्टी संस्थापक कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। 2002-2003 के दौरान भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार में मायावती फिर से मुख्यमंत्री बनीं। भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो मायावती की सरकार गिर गई  और सूबे की कमान मुलायम सिंह यादव के हाथों में चली गई। मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव जीतकर फिर से सत्ता में लौटी और यूपी की कमान संभाली। 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी चुनाव हार गई। तब से लेकर आज तक मायावती को कोई जीत हासिल नहीं हुई। उनके पास सबसे बड़ी चुनौती बहुजन समाज मूवमेंट को सँभालने की है।

भीम आर्मी के चंद्रशेखर सबसे बड़ी चुनौती 
लगातार चुनाव हार रहीं मायावती के सामने दलित वोट बैंक को बचाने की चुनौती तो है। उसके साथ ही भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद भी हैं। चौतरफा चुनौतियों से घिरी मायावती परिवारवाद से लेकर कई आरोपों से घिरी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि 2012 के बाद से जीतने भी चुनाव हुए हैं। मायावती का अपने  परम्परागत वोट बैंक से लगाव काम हुआ है। पॉलिटिकल पंडित रतनमणि लाल बताते हैं कि पार्टी नया दलों की तरह कोई प्रयोग न कर परम्परागत रास्तों पर ही आगे बढ़ रही है। सोशल मीडिया और डिजिटल युग में जहां एक और अन्य दाल अपने को मजबूत कर रहे हैं। वहीं बसपा यहां रेस में भी नजर नहीं आती। इसके अलावा मायावती का मैदान में न उतरना भी एक प्रमुख वजह है कि वे अपने लोगों से दूर हैं।https://gknewslive.com

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