धर्म-कर्म: किस्से कहानियों के माध्यम से बहुत गहरी बात समझा देने वाले, इस समय के पूरे महापुरुष, आध्यात्मिक साधना में तरक्की देने वाले, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, परम दयालु, त्रिकालदर्शी, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकांत जी ने बताया कि कहीं आदमी अपनी पावर को जान-अनजान में गवां देता, खर्च कर डालता है। जब दूसरे की भलाई में खर्च हो जाता है और उसको पता लगता है तो फिर वह अहंकार में आ जाता है। लोग साधना, मेहनत, प्रचार-प्रसार करते हैं, लोगों को बुला-बुला कर भी (साधना में) बैठाते हैं, खुद भी बैठते हैं, तमाम लोगों को बुराइयों से बचाते हैं, शाकाहारी सदाचारी बनाते हैं तो उसका लाभ (फल) मिलता है। अब फल सामने ला करके दे दिया जाए तो उसी से अंहकार हो जाता है। जैसे रुपया पैसा, बाहर का मकान, कोठी, गाड़ी, घोड़ा जब आदमी के पास हो जाता है तो उसी से आदमी को अंहकार हो जाता है। ऐसे ही वह चीज (अंतर साधना की दौलत) अगर मालूम हो जाए तो अंहकार आ जाता है कि हमारे पास देखो यह सिद्धि रिद्धि ताकत आ गई फिर उस ताकत को गंवा देता है। इसीलिए प्रेमियों का बहुत कुछ तो सतगुरु उसकी बचत के लिए छुपा कर, संभाल करके रखते हैं। कि इसका इकठ्ठा किया हुआ आत्मा का धन पावर शक्ति इसके मुसीबत में काम आ जाए। कभी ऐसा भी होता है आदमी उसको जान-अनजान में खर्च कर डालता है।
दल्ला साधक के प्रसंग से महाराज जी ने समझाई गहरी बात:-
दल्ला नाम का एक साधक साधना करता था। साधना में पता नहीं चलता है कि कितनी शक्ति पावर हमको मालिक ने दे दिया है। उधर गांव की औरतें पहाड़ी पर बकरी चराने के लिए जाती थी और पहाड़ी के नीचे दल्ला की कुटिया थी जहां वो अपना ध्यान भजन करता रहता था। गांव में से रोटी मांग कर के खा लेता। वो सबसे मजे में रहते हैं जिनमें कोई आदत नहीं रहती है। किसी चीज की आदत वाले जैसे बीड़ी, हुक्का, तंबाकू, कोई चटपटा, अचार, मसाला वाली चीजों को खाने की आदत आदि ये सब भी व्यसन है। व्यसनी धन नहीं शुभ गति व्यभिचारी, सेवक सुख नहीं मान भिखारी। सेवक को सुख, भिखारी को सम्मान और व्यभिचारी को कभी मुक्ति मोक्ष नहीं मिलता है। जिसको कछु न चाहिए, सोही शहंशाह। जो जितनी ज्यादा गृहस्थी को बढ़ाता है, उतना ही फंसता चला जाता है। और जो जितना समेटता है उतना ही सुखी रहता है।