धर्म-कर्म : विधि के विधान की हर बारीकी जानने समझने वाले, सभी जीवों से प्रेम करने वाले, अंतर के मानसरोवर में जीवात्मा को स्नान कराने वाले, उपरी दिव्य लोकों में चढ़ाई, रसाई कराने वाले, शिष्य से उसके बुरे कर्मों को ले कर काटने, कटवाने वाले, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, त्रिकालदर्शी, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकांत जी महाराज ने बताया कि शिष्य को ऐसा चाहिए कि गुरु को सर्वस्व दे और गुरु को ऐसा चाहिए कि शिष्य से कछु न ले। लोग तो यह कहते हैं कि गुरु बनाओ तो गुरु को सब कुछ दे दो। धन-दौलत, मकान, दुकान, जमीन-जायदाद आदि सब सौंप दो लेकिन सन्त न भूखा तेरे धन का, उनके तो धन है नाम रतन का, पर तेरे धन से कुछ काम करावे, भूखे दूखे को खिलवावे।

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महाराज जी ने आगे कहा की, अगर आप धन दे दोगे तो भूखे दूखे को खिलवा देंगे। कोई और चीज आप दे दोगे तो दूसरों के उपयोग में वह उसे ला देंगे। तो वह क्या चाहते हैं? आप अपने कर्मों को उनको दो। गुरु को चाहिए शिष्य से कछु न ले। गुरु क्या करते हैं? जो शिष्य प्रेमी होते हैं उन्हीं के द्वारा उनके कर्मों को कटवाते हैं। कर्म काटने के कई तरीके बताए गए। सबका बोझा, सबका भार लेना यह बहुत कठिन काम होता है। नाम दान देना, जीवों को अपनाना, उनकी धुलाई-सफाई करना, बहुत कठिन काम होता है। जुड़वां बच्चे पैदा हो जाते हैं, सेवा करते-करते मां-बाप परेशान हो जाते हैं। दो ही बच्चे, चार बच्चे हो गए जिसके, लड़का इधर रो रहा है, लड़की उधर रो रही है, किसी को कमर में दबाए, किसी को कंधे पर डाले हुए है तो परेशान हो जाते हैं। और कहा गया है बाप-बेटे का रिश्ता होता है गुरु-शिष्य का। तो इतनी बेटों की परवरिश कैसे हो सकती है, कैसे संभाल हो सकती है? तो तौर-तरीका सिखाते बताते हैं कि इस तरीके से रहो, ऐसा खानपान चाल चलन रखो, गर्मी आवे तो गर्मी से बचत रखो, ठंडी आवे तो गरम कपड़ा पहन लो आदि। यह सब बातें सतसंग के द्वारा बता समझा देते हैं।

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