धर्म-कर्म : जयगुरुदेव नाम की अलौकिक शक्ति का इजहार अपने सब भक्तों में कराने वाले, दुनिया में जयगुरुदेव नाम का लोहा मनवाने वाले, मौज के धनी, प्रेम और तड़प से याद करो तो दर्शन दे देने वाले, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकांत जी महाराज ने बताया की, एक साधक बड़ी चिंता में था। गुरु का दर्शन नहीं मिला। सतसंग में सुना था कि गुरु का दर्शन हो सके तो रोज करो, नहीं तो हर दूसरे दिन करो, नहीं तो तीसरे दिन, हफ्ते में एक बार, 15 दिन, महीने, 3 महीने, 6 महीने में, नहीं तो साल में कम से कम एक बार दर्शन जरूरी होता है।
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बरस दिनों में दरश न कीन्हा, ताकौ लागे दोष, कह कबीर वाकौ कभी न होय मोक्ष। तो बराबर दर्शन करते रहना चाहिए। वह बेचारा नहीं आ पा रहा था। जो भी परिस्थिति रही हो। लेकिन अंदर से बराबर तड़प बनी रहती थी। कब दर्शन मिले, कब दर्शन मिले। एक दिन सुबह उठा तो गुरुजी से ही मांगा कि आज हमको दर्शन हो जाएं। गुरुजी सुबह उठे, उन्हें कहीं दूसरी तरफ जाना था। उस समय मोटरकार नहीं थी। तो घोड़ा, हाथी, ऊंट यही सबकी सवारी लोग करते थे। तो गुरु जी ने घोड़े पर सवारी किया एक दिशा में जाने के लिए लेकिन घोड़ा मुड़ गया दूसरी तरफ। बहुत कोशिश किया नहीं मुड़ा, सोचे क्या बात है। आंख बंद करके देखा तो भगत बैठा हुआ है। और सुबह-सुबह उसने मांगा था आज गुरु का दर्शन हो जाए तो घोड़े के अंदर प्रेरणा हो गई। गुरु जी ने जब देखा तो घोड़े (लगाम को) को बिल्कुल ढीला कर दिया और ठीक वही पहुंच गए। अब जब देखा (साधक ने), पकड़ा पैर, रोया, चिल्लाया (कि आज तो दया से दर्शन हो गए)। तो सन्त कब किधर चले जाए, कब कहां जाना पड़ जाए, कब किसके अंदर प्रेरणा हो जाए, कौन सा जीव तड़प रहा है। (उनकी गति अगम है।)
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