धर्म-कर्म: जीवात्मा को सतलोक ले जाने वाले, अपने सतसंग रूपी जल से जीवों की सफाई करने वाले, पूरे समरथ संत सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त महाराज जी कहते हैं- जीव, सीव और हंस। जब तक यह जीवात्मा शरीर के अंदर रहती है तब तक यह जीव है। जब शरीर को छोड़ेगी तब सीव हो जाएगी, जब अन्य शरीर में जाएगी, लिंग शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर। उससे परे जब हो जाएगी, शब्द को पकड़ कर जब सतलोक जाने की तैयारी हो जाएगी, मानसरोवर में स्नान करेगी तब यह हंस रूप हो जायेगी। निरखे हंस रुप हुआ अपना। फिर वह हंस स्वरूप अपने को ही दिखाई पड़ता है कि, हम कितने सुंदर, स्वस्थ, साफ है। जैसे लोगों ने नीचे की साधना की, ब्रह्म तक पहुंच गए, तो अहम् ब्रह्मास्मि बोलने लग गए। वहां तक तो अहंकार रहता ही है, अहंकार नहीं जाता है। अहंकार में चूर हो गए। बहुत से लोगों ने दर्शन भी किया, वहां तक पहुंचे भी लेकिन श्राप देकर के या अन्य करामात दिखा करके अपने कर्म को नष्ट कर लिए। कहने का मतलब यह है कि अगर जीवात्मा इसी में पड़ी रह गई तो उसी तरह से है जैसे कौवा अपनी इंद्रियों के स्वाद के लिए क्या-क्या करता है, खाता है, ऐसे ही है जीवात्मा रह जाएगी। इस शरीर के सुख को भोगने में आगे नहीं निकल पाएगी। फिर और थोड़ा आगे हंस बन जाएगी। हंस के बाद, न गुरु न चेला, सब में बोले एक अकेला। फिर वह एक अकेला हो जाता है। वो उसमें समा जाती है, तदरूप हो जाती है, साजुग्य मुक्ति पा जाती है।

सतसंग जल से सतगुरु जीवों की सफाई करते हैं:-

बाबा जी कहा कि, आदमी इस शरीर से खराब कर्म कर लेता है। हाथ, पैर, आंख, कान से बुरे कर्म करता है, बुरी बातों को सुनता, बुरी नजर से देखता है तो खराब कर्म जमा होते हैं। यही जीव जब कान से सतसंग वचनों को सुनते हैं और जब शरीर से अच्छे कर्म करने लग जाता है तो सतसंग की बातें रूपी जल से अंदर के कर्मों को काट देता है। इसके बाद अगर मानव और नए बुरे कर्म नहीं करता है तो धीरे-धीरे सफाई होती रहती है। जब सतगुरु रास्ता बताने वाले, सुख शांति दिलाने वाले, जीवात्मा को प्रभु परमात्मा तक जिनकी ये अंश है, वहां तक पहुंचने वाले मिल जाते हैं तब तो (शिष्य के कर्मों की) पूरी सफाई उनको करनी पड़ती है, वह कर भी देते हैं। इसलिए कहा गया है- धोबिया वह मर जाएगा, चादर लीजिए धोये, चादर लीजिए धोये, भई वो बहुत पुरानी, चल सतगुरु के घाट, बहे जहाँ निर्मल पानी। कौन सा पानी उनके अंदर बहता है, जिससे अंतरात्मा की सफाई होती है। उनकी दया कृपा मेहरबानी से अगर बर्तन (अंत:करण) साफ नहीं होगा तो खराब बर्तन में अगर अच्छी चीज भी रख दोगे तो वह भी खराब हो जाएगी। जैसे समझो विष से भरे घड़े में अमृत गिरे तो भी अंदर तक पूरा अमृत नहीं जा पायेगा इसलिए पहले उसकी सफाई जरूरी होती है। तो कर्म इससे (गुरु आदेश के पालन से) धूलेंगे। गंदगी से गंदगी नहीं धूलती है। मैल से मैल, कीचड़ से कीचड़ नहीं धुलता है, पानी बिलोने से घी नहीं निकल सकता। कहने का मतलब यह है कि, सतसंग और सन्तों का मिलना जरूरी होता है।

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