धर्म कर्म: निजधामवासी बाबा जयगुरुदेव जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त महाराज जी ने सांय उज्जैन आश्रम में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि कबीर साहब जब आए तो उन्होंने आंखों के नीचे की सारी साधना को खत्म कर दिया। आंखी मध्य पांखी चमके, पाखी मध्य द्वारा, ते द्वारे दूरबीन लगावे, उतरे भव जल पारा। आंखों के बीच से जो रास्ता गया हुआ है, वह रास्ता उन्होंने बताया। कबीर साहब पूरे सन्त थे। जोग जीत 16 सुतों में से एक थे। चार का भेद तो खोला सन्तों ने बाकी अभी गुप्त रखा गया है। योगजीत उन्हीं में से थे, जो यहां भेजे गए थे। सतलोक वासी तो वह नहीं बन पाए, यहां जीवों का काम करके फिर वही समा गए जहां से आए थे, वहीं पहुंच गए लेकिन सतलोक का भेद उन्होंने खोला। उससे पहले सतलोक का भेद कोई जानता ही नहीं था।

गुरु का फोटो यादगार और अभ्यास करने के लिए लगा दिया जाता है

महाराज जी ने भरूच (गुजरात) में बताया कि यह हमारे गुरु महाराज बाबा जयगुरुदेव जी की तस्वीर लगी हुई है। गुरु महाराज पंच भौतिक शरीर में होने के नाते शरीर छोड़कर के चले गए लेकिन यादगार के लिए फोटो लगाया जाता है। यह फोटो, मूर्तियां पहले ऐसे लोगों के लिए बनाते थे जिनको अंतर में (गुरु का) दर्शन नहीं होता है, जो सुरत शब्द योग की साधना जानते नहीं है, सुरत शब्द की साधना जानते हुए भी सुरत को शब्द के साथ जोड़ नहीं पाते हैं इसीलिए गुरु के रूप को नहीं समझ पाते हैं। गुरु का दर्शन नहीं हो पाता है तो भ्रम और भूल में ही रह जाते हैं। तो प्रैक्टिस अभ्यास कराने के लिए यह (गुरु का) फोटो लगा दिया जाता है क्योंकि गुरु के बगैर कोई एक कदम भी आगे बढ़ ही नहीं सकता है।

कलयुग के प्रथम सन्त कबीर साहब ने आंखों के नीचे की साधना सब खत्म कर दिया

गुरु का फोटो इसीलिए लगाया जाता है क्योंकि चेहरा भूल जाता है। भूलने की आदत है। यह भूल और भ्रम का देश है। नाम दान लेने के बाद आदमी भूल जाता है इसीलिए फोटो लगा दिया जाता है। अब कोई कहे कि हम फोटो की पूजा करके, धूप आरती करके, घंटा-गला बजा करके, नंगा रह करके मुक्ति मोक्ष प्राप्त कर लेंगे, ऐसा इस समय पर नहीं हो सकता है। अष्टांग योग करके, कुंडलियों को जगा करके, प्रणायाम करके, मुक्ति मोक्ष इस समय नहीं हो सकता है। यह कब की साधना थी? यह त्रेता और द्वापर युग की साधना थी। कलयुग में उम्र कम है। त्रेता में दस हजार वर्ष, द्वापर में एक हजार वर्ष और कलयुग में केवल सौ वर्ष की उम्र रह गई। वह (पिछले युगों की) साधना करके कोई कैसे पार हो सकता है। इसीलिए प्रथम सन्त कबीर साहब ने आंखों के नीचे की सब साधना को खत्म कर दिया। दोनों आंखों के बीच से जो रास्ता गया, उसको उन्होंने बताया।

सन्तों के बहुत से जीव फंसे हुए हैं

सन्तों के बहुत से जीव फंसे हुए हैं। दुनिया से जाते समय गुरु अपने उत्तराधिकारी को अपना चार्ज देकर के चले जाते हैं। जो जीव वक्त गुरु के पास पहुंच नहीं पाते हैं, भ्रम में पड़ जाते हैं, निकल नहीं पाते हैं। कोशिश तो होती है, एक पुश्त तो वह संभाल करते हैं लेकिन उसके बाद दूसरे को चार्ज दे देते हैं। जिन जीवों को पकड़ते हैं, उनके लिए तो पूरी कोशिश करते हैं। मन की डोर माया और सुरत की डोर काल के हाथ में है। (चूँकि) इन्हीं के देश में इस पंच भौतिक शरीर में जीव को रहना पड़ता है। तो सतगुरु जब नाम दान देते हैं, अपनी मोहर ठप्पा लगाते हैं तो समझ लो उस समय पर काल के हाथ से डोर को अपने हाथ में ले लेते हैं और तुरंत गुरु पद पर जाकर बांध देते हैं। उस समय तक अगर वह उनका भक्त बन गया, अगर आदेश का पालन करने लग गया तो पीछे लगा भी लेते हैं। जैसे शादी के बाद आदमी के पीछे उसकी औरत भी बिना रोक-टोक के चली जाती है। ऐसे लग जाता है, लगा लेते तो निकाल भी ले जाते हैं। नहीं विश्वास होता है, डगमगता रहता है तो वही फंसा रह जाता है। लेकिन शरीर छोड़ने के बाद भी निकालने के लिए वहां तक आते रहते हैं। जो उस समय के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी होते हैं उनको सूपूर्द तो कर देते हैं लेकिन बराबर वहां से संभाल करते, प्रेरणा देते रहते हैं कि जा पहुंच जा, चला जा, उनके (वक़्त के गुरु के) पास। लेकिन कर्मों के चक्कर में जीव आ गया तो जीव फंस जाया करते हैं। आपको उपलब्धि तब मिलेगी, आप कोशिश तब करोगे, जब आपकी समस्याएं सुलझेगी। तो उनको सुलझाने का भी उपाय ले लो।

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