धर्म कर्म: विभिन्न भाषाओं के और कोरे किताबी ज्ञान से कहीं आगे आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले, उसका प्रैक्टिकल अनुभव कराने वाले, जीवात्मा की खुराक प्रभु का सच्चा भजन करने का तरीका बताने वाले, इस समय के पूरे समरथ सन्त सतगुरु दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने बताया कि सतसंग से बहुत से चीजों की जानकारी होती है। जैसे मकान पर ऊपर चढ़ना हो तो पहली, दूसरी, तीसरी सीढ़ी होती है ऐसे ही ये प्राथमिक सीढ़ी है स्वर्ग बैकुंठ जाने की। आजकल बच्चों को सतसंग में नहीं लाते हैं तो सतसंग बिन जाने नही, दया दीन उपकार, जो कि (आत्म कल्याण की) प्राथमिक सीढ़ी है। उसी को समझ नहीं पाते हैं। दया करना बहुत बड़ा धर्म होता है। दया धर्म तन बसै शरीरा, ताकर रक्षा करे रघुवीरा। जिसके अंदर दया है, उसके अंदर कहते हैं आप हैं, भगवान हैं। जीवों पर दया करना, करवाना जो लोग नहीं सीख पाते, हिंसा हत्या वाला ही खाते हैं, उनकी बुद्धि पशुओं जैसी हो जाती है। उनको क्या पता? सतसंग तो सुने नहीं, जो महात्मा किताबों में लिखकर रख गए उसे सुना-पढ़ा नहीं। उन्होंने तो कौन सी विद्या पढ़ी? जिसके लिए कहा गया- पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय।। पोथी पढ़ लिया, हिंदी अंग्रेजी संस्कृत की किताब पढ़ लिया, हिंदी अंग्रेजी उर्दू फारसी फ्रेंच जर्मन चाइनीस सीख लिया, उससे क्या मिलेगा? खाने को रोटी और कमाने की रोजी मिल जाती है लेकिन कहो कि उनकी मुक्ति मौक्ष हो जाए, उनको इस भवसागर में न आना पड़े तो केवल भाषाओं व किताबों की जानकारी से नहीं हो सकता।

अगर किताबी ज्ञान से ही सब होता तो बड़े-बड़े पुस्तकालय लाइब्रेरियां खोल दी जाती

और उसी को पढ़कर के लोग महात्मा बन गए होते लेकिन भारत ही नहीं पूरे विश्व का इतिहास बता रहा है कि किताब पढ़ करके कोई महात्मा नहीं हुआ। महात्मा कौन होता है? जिसकी आत्मा महान हो जाती है। वह महान आत्मा ऊपर की तरफ जाकर शक्ति ले आती है, उस (परा) विद्या को ले आती है जो दुनिया की इस विद्या से नहीं सीखा जा सकता है, वो आध्यात्मिक विद्या कहलाती है। वह महान होते हैं। आजकल लोग ज्यादा धन प्रतिष्ठा कमाने वाले, बड़े पद वाले को अच्छा कहते हैं लेकिन हम तो उनको अच्छा कहते हैं जो मेहनत ईमानदारी का कमाते खाते हैं, अपने शरीर के लिए ही नहीं बल्कि अपनी आत्मा को भी खुराक देते हैं। रोटी-दाल तो पेट में जाएगा, शरीर स्वस्थ होगा, भूख मिटेगी लेकिन जीवात्मा की भूख कैसे मिटती है? जीवात्मा का भोजन अलग है। जो गुरु महाराज ने सुमिरन ध्यान भजन बताया, हम-आप (नामदानी) करते हो। आत्मा का भजन, जो आत्मा का भोजन करते हैं, मेहनत ईमानदारी से जीवन यापन करते हैं, धर्म का पालन करते हैं हम तो उनको अच्छा कहते हैं।

सिनेमा देखने वाले, होटल में खाने वाले, ऐशोआराम करने वाले कभी भजन नहीं कर सकते

गुरु महाराज बराबर बोलते रहे की होटल में खाने वाले, सिनेमा देखने वाले, ऐशोआराम करने वाले कभी भजन नहीं कर सकते। यही बातें गुरु महाराज की जब दोहराई गई तो बहुत से लोग सिनेमा जाना बंद कर दिए। बोले, असली चीज पाने के लिए थोड़ा बहुत त्याग करना पड़ेगा। बड़ी चीज पाने के लिए छोटी कुर्बानी करनी पड़ेगी। हम इनको छोड़ देंगे लेकिन वह आदत बनी हुई थी। जब टीवी में गाना आया, सीन आया तब उसको देखने बैठ गए। वही बात जब सतसंगों में फिर दोहराई गई की टीवी देखने से भजन नहीं बन सकता, टीबी जैसी बीमारी हो जाती है जो कभी छुटती नहीं। आंखों में उसी का अक्स आ जाता है, कभी खत्म नहीं होता है जैसे सांप के आंखों में अक्स आ जाता है। जोड़े वाले साँपों में एक को मारते हुए दुसरे के आँखों में मारने वाले का अक्स पिक्चर आ जाती है। उसी से इनसे भी एक तरह से शरीर ही जहरीला हो जाता है। अब टीवी लोगों ने बंद किया तो जेब-जेब में टीवी आ गई जेब-जेब में मोबाइल आ गया।

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