एक भीगी सी शाम, माटी की सौंधी-सौंधी सी गंध बिखेर गई
एक भीगी सी शाम चाय की चुस्की लेकर, माटी की सौंधी-सौंधी सी गंध बिखेर गई। पग में पैजनियां बांधे बूंदे छम-छम करतीं। आंगन यादों का महका सुधि बुद्धि मेरी हरतीं।…
एक भीगी सी शाम चाय की चुस्की लेकर, माटी की सौंधी-सौंधी सी गंध बिखेर गई। पग में पैजनियां बांधे बूंदे छम-छम करतीं। आंगन यादों का महका सुधि बुद्धि मेरी हरतीं।…
काव्य : जलते जेठ का महीना चुरा लिया है। धूप ने जिस्म से पसीना चुरा लिया है।। रख के पत्थर को अपने सिर पे उसने- छाती के भीतर से सीना…