काव्य :

जलते जेठ का महीना चुरा लिया है।
धूप ने जिस्म से पसीना चुरा लिया है।।

रख के पत्थर को अपने सिर पे उसने-
छाती के भीतर से सीना चुरा लिया है।

धूल धूसर हो गये हैं लिबास भी उसके-
और थकन ने खाना-पीना चुरा लिया है।

फिर भी यूँ मुस्कुरा कर के जीती है वो-
कि उसने इल्म-ए-जीना चुरा लिया है।

डा० मनीष गुप्ता “मनीषी”

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