एक भीगी सी शाम
चाय की चुस्की लेकर,
माटी की सौंधी-सौंधी सी
गंध बिखेर गई।

पग में पैजनियां बांधे
बूंदे छम-छम करतीं।
आंगन यादों का महका
सुधि बुद्धि मेरी हरतीं।

एक चाहत की परी
लिए चंदन की खुशबू,
मन दर्पण पर मौसम की
मकरंद बिखेर गई।
माटी की सौंधी-सौंधी सी
गंध बिखेर गई।

सावन झूमे मस्ती में
पी कजरी का प्याला।
आंचल भरता पेंग
राग की महके मधुशाला।

और कठौती भर लाई सुधि
साजन-संगम की,
मसि कोरे कागज पर
गीले छंद बिखेर गई।
माटी की सौंधी-सौंधी सी
गंध बिखेर गई।

लेखक: ओंकार त्रिपाठी, कमालपुर मुबारकपुर पिकार, अंबेडकर नगर, उप्र

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