लखनऊ: कर्मों की गहन गति को सरल शब्दों में समझाने वाले, लोगों द्वारा प्रकृति के विधान के खिलाफ जान-अनजान में निरंतर हो रहे कर्मों की सजा से सबको आगाह करने और उससे बचने के उपाय बता कर सबकी रक्षा करने वाले इस समय के पूरे त्रिकालदर्शी सन्त सतगुरु बाबा उमाकान्त जी महाराज ने उज्जैन आश्रम में दिए व यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर प्रसारित संदेश में बताया कि इस समय पर घोर कलयुग चल रहा है। इस समय पूरे विश्व में 80 परसेंट से ऊपर लोगों पर हत्या का पाप लदा हुआ है जीव हत्या का।
सब पाप के भागीदार हो रहे हैं
अच्छा-बुरा कर्म करने पर, कहते हैं, पुण्य-पाप लगता है। जैसे यहां की धाराएं, कानून बना हुआ है। जो हत्या करता, बंदूक देता, योजना बनाता है सबको सजा मिलती है। इसी तरह से सब लोग यह सजा के भागी हो जा रहे हैं चाहे जान में हो रहे या अनजान में। और मरवाने वाले के साथ में रहने वाला भी कानून के दायरे में आ जाता है। यह बड़ा गहन विषय है, इसको समझने की जरूरत है। जीवों को जो मारता, काटता, लाता, खाता, खिलाता, उसका साथ करता, उससे जुड़ा हुआ, जिसके बर्तन में मांस पकाया गया, सब हत्या के भागीदार बन जाते हैं।
मांस खाने, शराब पीने से लोगों की नीयत खराब हो गई
मांस खाना बहुत बड़ा पाप बताया गया। बहुत से अज्ञानी डॉक्टर हैं, कहते हैं अंडा खाओगे ताकत आ जाएगी। शरीर तो सूखी रोटी, सादा खाना, शाकाहारी भोजन से भी चलता रहता है, उससे से भी ताकत आती है। जब इससे ज्यादा ताकत आने लगती है तब मन विषयों की तरफ ले जाता है। मांस जब खाने लगे, मांस गलने में जब दिक्कत हुई, मांस जल्दी घुलता नहीं है। शराब में ऐसी चीज रहती है कि पेट में पड़ी हुई चीज को जल्दी घुला देती है तो मांस को गलाने के लिए शराब पीने लगे तो बुद्धि खराब हो गई। मांस खाने से शरीर को जो भी ताकत मिली, बुद्धि खराब हुई तो आदमी ने अपनी नीयत को खराब कर दिया। दूसरों की औरतों, बाजार की औरतों की तरफ नजर चली गई। वहां पर अपनी कीमती शुद्ध सात्विक शुक्राणु फैला दिया।
जो वासना वश बच्चे पैदा करते हैं उनके बच्चे व्यभिचारी प्रवर्ति के पैदा होते हैं
जो ऐसा भाव रखते हैं कि अच्छा संतान पैदा हो जाए जैसा ध्रुव, भरत, प्रहलाद, राम, रहीम, मोहम्मद, कृष्ण, भगत सिंह, चंद्रशेखर, अशफाक उल्ला खां, महात्मा गांधी जैसा पैदा हो जाए जिसके भाव जैसे रहते हैं उसी तरह के बच्चे पैदा होते हैं। जो कामवासना वश बच्चे को पैदा करते हैं उनके बच्चे उसी तरह से व्यभिचारी प्रवृत्ति के पैदा होते हैं।
मनुष्य पशुओं से नीच प्रवृत्ति में चला गया, ऐसे में धर्म-कर्म लोगों कि कैसे समझ में आ सकता है
मनुष्य पशुओं से भी बदतर हो गया, पशुओं से भी नीच प्रकृति में चला गया। ऐसे समय में अध्यात्म और धर्म कर्म लोगों के समझ में कैसे आ सकता है? वह तो बस वही पसंद करेंगे, भगवान का नाम ले लो, बाहरी पूजा-पाठ कर लो। घर में केवल दो-एक लोग हैं जिनके पुण्य-प्रताप से घर चल रहा है। बाकी कुछ नहीं। ऐसे अगर देखा जाए तो बहुत ही वातावरण खराब हो रहा है। ऐसे समय में अगर लोगों का खान-पान, चाल-चलन अगर नहीं सुधरा तो ये न देवता को न भगवान को समझ सकते हैं। ये धरती पर भार रूप में जैसे पशु-पक्षी चलते हैं, मर जाते हैं, चले जाते हैं तो ऐसे मनुष्य ही इसी तरह से रह जाएंगे।