लखनऊ: कहा गया है कि कर्मों की गति अटल होती है और कर्म फल से कोई बच नहीं सकता लेकिन लेकिन अपने अपनाये हुए जीवों के कर्मों को काटने की ताकत और कटवाने का सरल उपाय जिनके पास है, जो अपने जीवों की हर संकट में मदद करते हैं, हर पल संभाल करते रहते हैं, जिनको लेख पर मेख मारने की पॉवर है, जो असंभव को भी संभव बना सकते हैं और इसके अनेकों अनेक उदाहरण अब तक सामने आ चुके हैं, प्रभु के साक्षात अवतार, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, सर्व समर्थ, सर्व व्यापक, परम दयालु, त्रिकालदर्शी, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने जोधपुर (राजस्थान) में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि कर्म तीन तरह के होते हैं- संचित, क्रियामान और प्रारब्ध। जब सन्त मिल जाते हैं और जब जीव दया का पात्र बन जाता है, वह दया कर देते हैं, जीव उनसे नामदान ले लेता है, उनका हो जाता है, उनके बताए रास्ते पर चलने लगता है तब क्रियामान कर्म नहीं बनते हैं। पूर्व जन्मों के कर्मों यानी संचित कर्मों को भोगना पड़ता है लेकिन गुरु मिलने पर थोड़े बहुत रहते हैं तो खुद भी उसी समय काट देते हैं, बाकी सेवा, भजन के द्वारा धीरे-धीरे कटवा देते हैं। प्रारब्ध आदमी के साथ जुड़ा रहता है। लेकिन प्रारब्ध में भी आगे-पीछे करने का पावर सन्त सतगुरु को रहता है। उसका भी तरीका उनको मालूम रहता है। अगर कोई चीज प्रारब्ध में नहीं है तो जरूरत पड़ने पर उसे दिला देते हैं। काल भगवान ने इस मृत्युलोक का जो सारा सिस्टम बनाया, उन्ही के देवी-देवता, तीनों पुत्र (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) इसको चला रहे हैं लेकिन सन्त की मौज में यह लोग भी दखल नहीं देते हैं।

जानवरों के पाप कर्म नहीं बनते हैं

महाराज जी ने को बावल रेवाड़ी (हरियाणा) में बताया कि जानवरों में बुद्धि अकल तो होती नहीं, उनको तो सिखाया जाता है। तो उनके पाप कर्म नहीं बनते हैं। आदमी अगर किसी जीव को मार दे तो जीव हत्या का पाप लगेगा लेकिन जानवर तो मार कर के खा जाते हैं, उनका तो भोजन ही यही है। उनकी भोग योनि है और मनुष्य की योग योनी है। तो उनको पाप नहीं लगता है। लेकिन मनुष्य को अपने कर्मों की सजा मिलती है और जीवात्मा को नरकों चौरासी में कर्मों के अनुसार जाना पड़ता है। समझो कुछ ऐसे भी पूर्व कर्म आपके बने रहे जिसकी वजह से मनुष्य योनि आपको मिली। और अगर वह कर्म खत्म हो गए होते तो मनुष्य शरीर में यह जीवात्मा बंद नहीं की जाती। यह जीवात्मा उस मालिक के पास पहुंच जाती, जन्म-मरण से छुटकारा पा जाती, इस समय जो दु:ख के संसार में लोग दु:ख झेल रहे हैं, दुख झेलने की जरूरत नहीं पड़ती।

मन चंचल करने वाले कर्म बनने का कैसे पता चलता है

महाराज जी ने सायं दुजोद आश्रम, सीकर (राजस्थान) में बताया कि बहुत कोशिश किया जाए तो भी मन जब न रुके तो सोचो की किधर जा रहा है। खाने की तरफ या देखने, चलने, हाथ से कुछ करने की तरफ आदि किधर जा रहा है। तब समझ लो इसी अंग से हमारे कुछ कर्म बन गए। आंख से देखने की तरफ जा रहा है तो समझो आंख से हम कोई गलत नजर देखें। कान से निंदा-अपमान, गाना-बजाना, बुराई की तरफ मन जा रहा है तो समझो हम गलत चीज सुन रहे हैं। या जिभ्या के द्वारा ऐसी कोई बात कह दी गई कि जिससे कर्म बन गए। बहुत से लोगों को तो पता भी नहीं चलता है कि कर्म बन रहे हैं। तो क्या किया जाता है? सन्त-महात्मा शरीर के हर अंग की सेवा का विधान बना देते हैं। जब शरीर से सेवा के लिए जा रहे तो हाथ-पैर हिलाते हुए जाओगे, आंख से देखोगे नहीं तो आगे कैसे बढ़ोगे, कोई गाड़ी-घोड़ा पीछे से आ रहा है तो हार्न सुनोगे नहीं तो कैसे आगे बढ़ोगे आदि। तो सारे अंग सेवा में लग जाते हैं इसीलिए सेवा का विधान बना। जब भजन में मन न लगे तो सेवा करो।

नभ्या जिभ्या पर कंट्रोल कब होता है

महाराज जी ने सायं उज्जैन आश्रम में बताया कि जो भजन, त्याग करता है उसका नभ्या जिभ्या पर कंट्रोल हो जाता है। उसको तो पेट भरने के लिए खाना होता है। बढ़िया चीज नहीं चाहिए तो उसकी खोज वह नहीं करता है, कहीं भी रुक गया। जिसको यह नहीं है कि हम मोटे बिस्तर पर, एयर कंडीशन, पंखा कूलर में ही सोएंगे, वह तो कहीं भी रात बिता लेता है, उसके लिए कोई चिंता नहीं रहती है। कहा गया- चाह गई चिंता गई मनवा बेपरवाह, जिसको कुछ न चाहिए वोही शहंशाह। मन बेपरवाह हो जाता है, जो जहां मिल गया खा लिया, सो लिया और अपना भजन करते।

admin

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *