धर्म-कर्म : सब जीवों पर दया करने वाले, आत्मिक धर्म का पालन करने वाले, धन सम्मान जमीन जायदाद की बजाय अपने गुरु द्वारा सौंपे आध्यात्मिक काम को ही महत्त्व देने वाले, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, उज्जैन वाले बाबा उमाकांत जी महाराज ने संदेश में बताया कि पुण्य पाप धर्म अधर्म क्या है? रोटी खिलाना, पानी पिलाना, कपड़ा दे देना, शरण दे देना आदि यह सब पुण्य कहलाता है। यह इधर (मृत्युलोक) का पुण्य है। और आत्मा का कल्याण करा देना, नाम दान दिला देना, नामदान समझा कर के सुमिरन ध्यान भजन करा देना, घाट पर बैठा देना, उसमें यदि कोई कठिनाई आती है, जानकारी है तो उसको दूर कर देना- यह सब आत्मिक धर्म है। दया धर्म से यह चीजें शुरू होती है। जब दया आती है कि इसके शरीर को बचा लिया जाए, इसे रोग तकलीफ न हो, आत्मा को बचा लिया जाए, नरकों में न जाने पावे, काटी सडाई गलाई न जावे, आत्म साक्षात्कार कराया जाए, अपने निज घर पहुँच जाए – ये आत्मिक धर्म होता है।
महापुरुषों ने अपने आध्यात्मिक काम को ही महत्व दिया:-
महाराज जी ने बताया कि यह जरूर है कि जड़ अगर हरी रहेगी, तने में थोड़ी भी जान रहेगी, कोई जानकार होगा कि इसकी सिंचाई गुड़ाई खाद पानी कैसे किया जाए कि इसमें शाखाएं निकाल आवे, फल लगने लग जाए, तो लग भी सकता है। और नहीं तो ऐसे तो सूखा पेड़ दिख रहा है। जितने भी महापुरुष हुए, देखो मिट्टी-पत्थर, जमीन को कोई महत्व नहीं दिए। वह तो बस अपने मिशन को ही आगे बढ़ाए। उन्होंने महत्व अपने आध्यात्मिक, धार्मिक काम को ही दिया और आगे बढ़ते चले गए। एक नहीं अनेक स्थान बन गए। एक नहीं अनेक जगह मिल गई। एक नहीं अनेकों आदमी इस काम को करने में तैयार हो गए। तो ये हम सबको याद करना है। पीछे के इतिहास को देख करके, हमको आपको आगे चलना है। विवाद में प्रेमियों कभी मत फंसना। चाहे संगत, संगत के लोगों या घर का हो। फंस गए तो दिमाग विवादी हो जायेगा।