धर्म-कर्म : सब जीवों के सच्चे हितैषी, रूहानी दौलत लुटने से बचाने के लिए समय रहते सबको सावधान करने वाले, इस समय के महापुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, परम दयालु, त्रिकालदर्शी, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकांत जी महाराज ने बताया कि (गतांक से आगे) निमित्त मात्र महात्मा बताते हैं, बाकी दया तो अलग से जारी करते हैं। क्योंकि कर्मों की सजा होती है। कर्मों को जब काट देते हैं तो वह सजा खत्म हो जाती है। कर्मों की सजा बीमारी, गरीबी, अपमान (के रूप) में आती है। तो दल्ला की जो भी साधना थी, सब धीरे-धीरे खत्म हो गई और मान-सम्मान अहंकार का भूत सवार हो गया। जो भी आवे, उसी को बोलते, कहते चले जावे। कुछ दिन बाद दल्ला बीमार पड़े और हालत खराब हुई तो याद करे गुरु को। गुरु भी दर्शन न दे। गुरु की भी दया न मिल पाई। तब अपने साधक गुरु भाई को याद किया।

जिभ्या और निभ्या के स्वाद से बचोगे तो लुटने से बचोगे :-

इसलिए साधकों को बहुत होशियार रहने की जरूरत है। आपकी जिनकी भी साधना बन जाए और कुछ हासिल हो जाए, उस दौलत को गांठ बांध करके रखो। उसको इधर-उधर लुटाने की जरूरत नहीं है। यदि आप नभ्या और जिभ्या के स्वाद से बचे रहोगे, उसकी आदत अगर आप नहीं खराब करोगे तो फिर आपके लुटने के चांस नहीं रहेंगे। नहीं तो ज्यादातर इसी में लुट जाते हैं। उसी में तनिक सी असावधानी में आंख कान मुंह सब चंचल हो जाते हैं, चंचलता वाली बात को ही सुनना पसंद करते हैं जिससे मन और मोटा हो जाए, अच्छे कर्म खत्म हो जाए और बुरे कर्म आ जाए। वही आंखों से देखना चाहता है। इसलिए होशियारी का संसार है, इस संसार में साधकों को बहुत ही होशियार रहने की जरूरत है।

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