धर्म-कर्म : जीवात्मा को नरकों की भयंकर पीड़ा से, चौरासी लाख योनियों के लम्बे चक्कर से बचा कर मुक्ति मोक्ष का रास्ता नाम दान देने वाले, इस समय के महापुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, उज्जैन वाले बाबा उमाकांत जी महाराज ने बताया कि व्यक्ति शरीर को सुख पहुंचाने के लिए, अच्छा खाने, कपड़े इंतजाम करता रहता है। घर मकान बनाता, एक के चार कपडा, एक का दस मकान हो जाए, जब इस तरह की इच्छा रखता है तो मेहनत तो इतना कर नहीं सकता तो इन्हीं कामों के लिए लूटपाट, खसोट करता है।

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हाथ, पैर, मुंह, आंख, नभ्या, जिभ्या से अपराध कर डालता है तो उसकी सजा मिलती है। जैसे कर्म वैसी सजा मिलती है। जैसे थप्पड़ मारने, गाली गलौज करने की सजा अलग है। जान से मारने की सजा अलग। जैसे जेल में बंद कर देते हैं, ज्यादा अपराध किया तो बेडी हथकड़ी पड़ जाती है, और ज्यादा तो फांसी की सजा होती है। ऐसे ही शरीर से बने पापों की सजा के लिए नरकों में भेजा जाता है। जैसे यहां का नियम वैसे ही वहां का नियम। उसके अंतर्गत सजा मिलती है। जैसे जेलों में बैरक होती है, लड़कों की, औरतों की, आदमियों की बैरक अलग होती है। ज्यादा अपराधी को एक तरफ और साधारण अपराधी को अलग रखते हैं। इसी तरह से वहां पर भी बहुत सारे नरक हैं जिनमें जीवों को रहना पड़ता है। जब मनुष्य के कर्म खराब हो जाते हैं, मनुष्य शरीर पाने का मतलब नहीं समझ पाते हैं, अच्छे-बुरे का ज्ञान जब नहीं रह जाता है, जब सतसंग व सन्त नहीं मिलते हैं तब जीव भटक जाता है। तो नरकों में रहना पड़ता है। वहां से जब छुटकारा मिलता है तो चौरासी लाख योनियों में इसी जीवात्मा को भटकना पड़ता है।

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