धर्म-कर्म : साधक भक्त के सुखी रहने, और साधना में तरक्की पाने के सिद्धांत समझाने वाले, पुण्य कमाने के प्रयास में अनजान में कमाए पाप से बचने का उपाय बताने वाले, सब प्रकार के कर्मों को ख़त्म करने वाले सच्चे महात्मा, इस समय के पूरे समरथ सन्त सतगुरु दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने बताया कि, एक सेठ था। वह बुड्ढा हो गया। तो बुढ़ापे में कौन पूछे? तो दरवाजे पर बैठा रहता था। एक महात्मा जी उधर से जब जाने लगता तो मुंह उधर कर (फेर) लेता कि ये हमसे कहीं कुछ मांग न ले। कंजूस था। मितव्यई वो जो कम खर्चीला होता है। जरूरत भर का खर्चा करता है और जहां जरूरत होती है, वहां खर्चा करने में कोई कमी नहीं रखता है। और एक होते हैं कंजूस। कंजूस वो जो हर जगह पर कम खर्चा करते हैं। चाहे काम बिगड़ जाए, उनसे कोई मतलब नहीं है लेकिन दाम जेब में से न निकले। और एक होता है मक्खीचूस, चाहे चमड़ी जाये, कोई जूता मार दे लेकिन दाम हमको मिल जाए। इसके आगे महाराज जी ने अपने सतसंग में उस कंजूस सेठ वाली कहानी से समझाया कि केवल दुनिया कमाने में ही मत लगो, अपनी आत्मा के कल्याण का भी अपना असला काम जीते जी कर लो।

जो सच्चे महात्मा होते हैं:- 

जो सच्चे महात्मा होते हैं, हराम का खाना पसंद नहीं करते हैं। और जो साधक भक्त हैं, आपको भी इस चीज को समझना चाहिए कि आप दूसरे को अपना खिला दो, दूसरे का खाने की कोशिश मत करो। आप ठगा जाओ तो समझ लो कि आपका लेना-देना अदा हो गया। लेकिन दूसरे को ठगने की कोशिश मत करो। आप जो मेहनत की कमाई करते हो, उसको अपना धन समझो। जो मान-सम्मान का काम करते हो, वह मान सम्मान आप अपना समझो। दूसरे का मान-सम्मान छीन करके, दूसरे का धन छीन करके, आप कभी सुखी नहीं रह सकते हो। इसलिए यह बातें सतसंग में समझने की जरूरत है। गुरु महाराज कभी-कभी कहा करते थे, तुम्हारी दी हुई एक रोटी खाता हूं तो उससे ज्यादा मेहनत करता हूं, अदा कर देता हूं। तुम्हारे लिए कर देता हूं।

पैसा देने की बजाय रोटी खिला दो, पानी पिला दो:- 

महात्मा ऐसा नियम बना देते हैं कि जितने भी कर्म हैं, मनसा, वाचा, कर्मणा, प्रारब्ध, संचित, क्रियामान कर्म, सब ख़त्म हो जाते हैं। शरीर से सेवा करो तो शरीर से कोई पाप बन गया होगा तो वह पाप कट जाएगा। और धन से भी सेवा करो तो धन से बना पाप कट जायेगा। धन से कैसे पाप होता है? जैसे बहुत से (ठग) लोग मिल जाते हैं। आप धन के लोभ लालच में पड़ जाते हो। वो कह देते हैं कि बीमारी तुम्हारी ठीक हो जाएगी, नोटों की बरसात तुम्हारे घर में होने लगेगी, बस तुम एक बकरा खरीद कर ले आओ काट करके देवी की मूर्ति के सामने चढ़ा दो। वह पाप बना कि नहीं बना? आगे (पहले से ही) तो एक भूत लगा हुआ था, परेशान कर रहा था और (अब अकाल मृत्यु में गए बकरे का) दूसरा भूत और (ऊपर) सवार हो गया। कोई आपसे कह रहा है कि बहुत भूखा हूं, कुछ दे दो, कुछ खा लूंगा, चाय पी लूंगा और अपने धन दे दिया और उसने बकरा, मुर्गा कटवा कर खाया (तो आपको भी पाप लगा)। इसीलिए कहा जाता है, पैसा देने की बजाय रोटी खिला दो, पानी पिला दो। वह गृहस्थ‌ का धर्म है। लेकिन यह जो इधर-उधर बिना जानकारी में धन खर्च हो जाता है तो उस धन से पाप हो जाता है। और मनसा पाप भी हो जाता है। शरीर करता नहीं है, लेकिन मन से भी (गलत) सोचते हैं तो वह भी पाप लग जाता है तो महात्मा ही तीनों कर्म को कटवाते हैं। लोगों को शाकाहारी नशामुक्त चरित्रवान, सतयुग देखने लायक बनाओ। अगर इस अभियान में आप शरीक हो गए, प्रचार-प्रसार में चले गए, मानलो पर्चा छपवाना है, किराया-भाड़ा खर्चा करना है, और आपकी कमाई में से बचे रखे धन को इसमें लगा दोगे, मन से सोचोगे कि कौनसे गाँव में जाएँ, किसको समझाए, कहां-कहां मांसाहारी, शराबी, व्यभिचारी हैं, कहां हमको कामयाबी मिल जाएगी, हम लोगों को नामदान दिलवा, भजन करवा ले जायेंगे, तो मन से जो सोचोगे उससे मनसा पाप कर्म ख़त्म हो जायेगा। तब ये जीवात्मा मुक्त होगी

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