धर्म-कर्म: अंदर साधना में और बाहर दुनिया में दोनों जगह होने वाली ठगी से सावधान करने वाले, राज कराने वाले, जीव हित में चाहे कड़क बोलना पड़े लेकिन पीछे न हटने वाले, इस समय के पूरे समरथ सन्त सतगुरु दुःखहर्ता, उज्जैन के बाबा उमाकान्त जी महाराज ने बताया कि, अंदर में तो ठगी होती ही होती है लेकिन आजकल बाहर भी बड़ी ठगी होने लग गयी। ठग वही लोग जाते हैं जो ज्यादा लोभ-लालच करते हैं। ठग संगत में, गांव में, दफ्तर में, व्यापारियों के बीच बाजार में घुस जाते हैं। आप हर तरह के लोग हो, संगत में आते-जाते हो। व्यापार, खेती, नौकरी करने वाले कुछ हो। अगर लालच नहीं करोगे, अपने प्रारब्ध भाग्य पर विश्वास करोगे, कर्म के आधार पर ही आप अगर चाहोगे, जितना मेहनत करता है, उसको उतना मिलता है‌ (तो बचे रहोगे)। और जब मेहनत से बाहर की चीज की इच्छा कर लोगे, जिस चीज की आपको उम्मीद नहीं है कि इतना हमको फायदा हो जाएगा और कोई आएगा, कहेगा, अरे चार गुना-आठ गुना हो जाएगा, प्रमोशन हो जाएगा, नोटों की बरसात होने लग जाएगी बस इतना पैसा-रुपया दे दो तो लालच में ठगे जाओगे। आए दिन देखो, ठगी के समाचार आता रहते हैं। ठग बहुत होशियार होते हैं। इसके बाद गुरु महाराज ने इन्द्रलोक के कपड़ों वाली ठग की कहानी से समझाया कि रहो सावधान।

महात्मा राज्य करते नहीं बल्कि राज्य कराते हैं:- 

महात्मा ने कभी राज किया है? नहीं। वह तो राज कराते हैं। वो तो राजा को मार्गदर्शन देते, रास्ता दिखाते, बताते हैं कि इस (काम) से प्रजा सुखी रहेगी, लोगों का खान-पान, चरित्र सही रहेगा, इससे प्रकृति के नियम के खिलाफ कोई काम नहीं करेगा, यह सब बताते हैं। और यह बताते हैं कि प्रकृति को, देवी-देवताओं को, भगवान को खुश करने के लिए ऐसा काम करो कि जिससे समय पर जाड़ा-गर्मी-बरसात होने लग जाए, लोग खुशहाल हो जाए। यह तो महात्मा बताते, सिखाते हैं।

गुरु एवं महात्माओं पर सबको बराबर विश्वास क्यों नहीं होता है ?

सबके बर्तन एक‌ जैसे नहीं होते, एक जैसे साफ़ नहीं होते। अगर अच्छी चीज गंदे बर्तन में रख दी जाय तो वह भी गन्दी हो जाती है। इसीलिए लोग कहते हैं कि बांटते हुए हमको थोड़ा ही दिया। किसी को पूरा चम्मच भर के दिया और हमको आधा ही चम्मच दिया। लेकिन देने वाला एक, वो किसको, कितना देना चाहता है ये उस पर निर्भर करता है। इसलिए गुरु पर, महात्माओं पर सबको विश्वास बराबर नहीं होता है क्योंकि सबका एक जैसा पात्र रहता नहीं है। तो सबको एक जैसी चीज वो देते नहीं हैं। जो जैसा (लायक) होता है, उसको वैसा दे देते हैं। क्रूर यानी सजा देने वाला, जिसके अंदर दया नहीं रहती है और जो हिंसा-हत्या ही करता है, वैसा ही मन बना लेता है। तो मांसाहारियों की बुद्धि क्रूर हो जाती है तो वह जल्दी ऐसे महात्माओं को, सन्तों को पसंद नहीं करते हैं। वह तो ऐसे (गुरु) को खोजते हैं जो कहता है- ठीक है, कोई बात नहीं, (मांस-शराब-नशा) खाते-पीते रहो और तुमको हम शिव जी का मंत्र दे देंगे। वह भी गांजा पीते, भांग खाते थे, तो कोई बात नहीं है। गंजेड़ी हो, शराबी हो, कोई भी हो, आओ तुम्हारा कान फूंक देंगे, कंठी बांध देंगे, कोई दिक्कत नहीं है। तुम्हारे लिए तो हम (भक्ति का) बायपास रास्ता निकाल देंगे। लेकिन जिनको असलियत मालूम होती है, जो सच्चे महात्मा होते हैं, वह इससे समझौता नहीं करते हैं। वह कोई चेला, अपना आदमी नहीं बनाते हैं। वो तो अपने गुरु का आदमी बनाते हैं, प्रभु के प्रति प्रेम पैदा करते हैं। उनको इसकी फिक्र नहीं रहती है। फिक्र उनको किस बात की रहती है? कि जीव को किसी भी तरह से भटकने से बचाया, समझाया जाए। इसलिए वो कोई भी कदम आगे इसी तरह का बढ़ाते हैं कि जिससे मान लो, किसी को तकलीफ ही क्यों न हो जाए (लेकिन जिसमें जीव का भला हो)।

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