धर्म कर्म: निजधामवासी बाबा जयगुरुदेव जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त महाराज ने लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि जो भी गुरु सन्त हैं, सब मनुष्य से श्रेष्ठ है। सेवक से, जो सेवा कराता है वह तो श्रेष्ठ है। तो मैं तो सेवक हूं। गुरु महाराज भी कहा करते थे न मैं सन्त हूं न महात्मा हूं। तो उन्हीं का बच्चा, बंदा तो मैं हूं। मैं कैसे (और कुछ) कहूंगा? आप (चाहे) कुछ भी कहो हमको, पत्नी अपने पति को स्वामी, परमेश्वर, मालिक आदि जो चाहे कहे, उसको कोई रोक सकता है? ऐसे ही गुरु महाराज को बहुत तरह के नामों से लोग पुकारते थे। न समझ पाने वाले लोग उल्टा-सीधा भी कहते रहे। जब समझ आई तब उनका पैर छूने लगे। ऐसे ही मैं तो सेवक हूं। मैं तो सबका सम्मान करता हूं। सब अच्छे है। लेकिन इनमें कुछ पीढ़ी तक तो चली, जो उसको पकड़े रह गए, सुरत शब्द योग की साधना को, इस सुरत को शब्द के साथ जोड़ने के काम में लगे रहे, (अंतर में) कहीं तक भी वह पहुंचे, तो शक्ति उनके अंदर आ गई। लेकिन वह नाम तो लोग देते चले गए, लेकिन उसको (असली चीज को) उन्होंने छोड़ दिया और लोग फंस गए।
जैसे आज सन्तमत को समझने, जानने वाले जो नानक साहब के शिष्य कहे गए थे, वह अब किसमें फंसे हुए हैं? लंगर खिलाने में, गुरुद्वारे बना रहे हैं, साधन सुविधा दे रहे हैं, (जो काम) और संस्थाएं, और लोग कर रहे हैं, उनमें जनहित के काम में ही लगे हुए हैं और (सन्तमत की) मुख्यधारा से अलग हो रहे हैं। फिर उनके बाद शिवदयाल जी महाराज, राधास्वामी नाम को जगाये जिसके लिए कबीर साहब पहले ही कह कर गए थे- कबीर धारा अगम सतगुरु दई लखाये और उल्टता ही सुमिरन करे, स्वामी संग मिलाये। कहा गया है- उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भय ब्रह्म समाना। बहुत से लोग न जानकारी में कहते हैं कि मरा मरा मरा बोले थे तो मरा-मरा बोलो। ऐसे ही लोग अपनी बुद्धि के हिसाब से शब्दों का अर्थ लगा लेते हैं। उल्टा का मतलब यह नहीं कि वो उलट गए थे, सिर नीचे और पैर ऊपर करके नाम लेते थे। नहीं। इंद्रियों की तरफ से ध्यान हटा कर के और ऊपर की तरफ लगाते थे। अब यह मन जो इंद्रियों में लगा हुआ है, यह मन किस तरह का हो गया? यह मन कामी, क्रोधी, लोभी, लालची हो गया है। कोई बड़ा ही अच्छा हो, बड़ा ही स्वामी भक्त हो जैसे कुत्ता होता है लेकिन गंदी चीजों को खाता है तो उसको अंग्रेजी में डॉग कहते हैं। लेकिन अगर पलट के पढ़ो तो (GOD) गॉड यानी परमात्मा (भगवान)। ऐसे ही यह मन गंदे काम में लगा हुआ है लेकिन अगर इधर से इसको हटा दिया जाएगा और ऊपर की तरफ कर दिया जाये, इधर से ध्यान जब हट जाएगा तब सोही जाने ते देव जनाई, जानत तुम्हें तुम्ही होई जाई। जब उधर ध्यान चला जाएगा तब प्रभु सच्चिदानंद का दर्शन हो जाएगा, जो आनंद से भरा हुआ है। आनंद का भंडार तो यहीं से शुरू हो जाते हैं, सुरत (पिंड) के निकलने से ही आनंद का भंडार मिलने लग जाता है। गुरु ने मोहे दीना नाम जडी। वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, कृपा कर अपनायो। वह अमोलक वस्तु क्या है जो गुरु ने नाम उनको दिया, कृपा कर अपनायो। उन्होंने जो नाम दिया, उन्होंने लोगों को जोड़ना सिखाया। राधास्वामी- राधा यानी सुरत (जीवात्मा) और स्वामी मतलब प्रभु (मालिक) और उससे जोड़ने का तरीका उन्होंने बताया।
गुरु के मिशन से अलग होगे तो धोखा खाओगे
महाराज जी ने जयपुर (राजस्थान) में बताया कि जयगुरुदेव से जो लोग अलग हो रहे हो, जयगुरुदेव (गुरु महाराज की) विचारधारा से जो लोग अलग हो रहे हो, आपको मैं आज बता दे रहा हूं, चाहे आप तपस्वी हो, चाहे आप टाटधारी हो, चाहे आप कोई महात्मा बन गए हो, आप धोखा खाओगे। अगर गुरु के मिशन को छोड़ दोगे, गुरु के बताए हुए रास्ते से अलग हो जाओगे, जयगुरुदेव बाबा जो अपने गुरु महाराज थे, जो बाबा जयगुरुदेव के नाम से जाने जाते थे, उनके मिशन से आप अलग हो गए, जो वे चाहते थे, उस काम को अगर आप नहीं करोगे, खान-पान, चाल-चलन, विचार-भावनाएं सही नहीं रखोगे, ईशवरवादीता खुदा परस्ती से अलग हो गए, लाभ और मान को चाहोगे तो धोखा खाओगे। यह हमारा श्राप नहीं है, यह तो चेतावनी है। मैं तो सबका भला चाहता हूं। कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। हमारा बैर तो किसी से है ही नहीं। और हम दोस्ती भी ज्यादा किसी से नहीं करते हैं क्योंकि दोस्ती भी खतरनाक होती है। कहते हैं ज्यादा मिठास में कीड़े पड़ते हैं। तो ज्यादा मिठास भी नहीं, जरूरत से जरूरत। लेकिन जो अच्छा काम करते हैं, हम उनके साथ रहते हैं। उनसे हमारी विचारधारा मिलती है। उनसे हम सहयोग लेते-देते हैं लेकिन अपने लिये नहीं। मेरे तो कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। मैंने तो अपना घर, जमीन-जायदाद, कल-कारखाना भी नहीं बनाया। मैं तो जनहित का काम करता हूं। और लोगों को भी यही उपदेश करता हूं कि आप सब से प्रेम रखो, सबसे दोस्ती बनाओ लेकिन खुद के स्वार्थ की बात उनसे मत करो। सतसंगियों प्रेमियों कार्यकर्ताओं से मैं यह बराबर कहता हूं कि अपने स्वार्थ की बात किसी से मत करना नहीं तो तुम्हारा नाम खराब होगा ही होगा, गुरु का नाम भी खराब हो जाएगा।