धर्म कर्म: बाहर जगत में भी सहारा देकर, विश्वास दिला कर, साधना करवा कर, जीवात्मा को उपरी लोकों की सैर कराने वाले, वहां भी संभाल करवाने वाले और अंततोगत्वा निज धाम सतलोक जयगुरुदेव लोक ले चलने वाले, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त महाराज जी ने जयपुर (राजस्थान) में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि जीवात्मा में भी एक नाक अंदर में है। उससे वह खुशबू आनंद मस्ती आ जाती है कि जा मुल्ला तेरा रोज पीना, मस्तों का नहीं है करीना, जो चढ़ती उतरती है मस्ती, वह हकीकत की मस्ती नहीं है। अरे मुसलमान फकीर ने ही नहीं, नानक साहब ने भी कहा था- भांग भखुरी सुरा पान, उतर जाए प्रभात, नाम खुमारी नानका, चढ़ी रहे दिन रात। उस नाम का, ऊपरी लोकों का जो नशा होता है, वह हर पल हर क्षण रहता है, उतरता नहीं है जल्दी। जैसे बहुत से सेंट परफयूम बहुत समय तक लगा रहता है, कपड़ा धोने पर भी उसकी खुशबू जल्दी जाती नहीं है। ऐसे ही ऊपर का है। अंदर वाली नाक से ऊपरी लोकों की खूशबू ली जाती है।

माया के लोक में गुरु को भी भूल जाता है साधक

एक लोक से दूसरे लोक में जाने का सुराख बहुत पतला है। जीवात्मा के निकलने का सुराख सुई के छेद से भी कई गुना छोटा पतला है। लेकिन कहते हैं, जब गुरु की दया हो जाती है तो उसी से हाथी भी निकल जाता, गूंगा भी बोलने लगता, अपंग पहाड़ पर चढ़ जाता है, सब संभव हो जाता है। ऐसे ही पतले पतले लोक हैं। आवाज ही उससे निकलती है और आवाज ही उसको खींच कर ले जाती है। वहां तक पहुंचना पड़ता है। वहां तक जब पहुंच जाता है तब आवाज़ अंदर तक खींच लेती है और फिर साधक उसी आवाज को पकड़कर के उसी लोक में पहुँच जाता है। लेकिन वहां जब पहुंचता है तो यह भूल जाता है कि हमको अगले बॉर्डर (लोक) पर भी जाना है क्योंकि वहाँ इतनी साधन, सुविधाएं, आनंद रहता है कि वहा फंस जाता है। माया लोक से निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। साधक माया के लोक में गुरु को भी भूल जाता है। अपसराएं जब देखती, सुनती, आलिंगन करती है तो साधक ही सोचता है, गुरु अगर न आते तो बहुत बढ़िया था। लेकिन कहते हैं- चाहे चूं करो, चाहे मूं करो, हम तो तुमको छोड़ेंगे नहीं, हम तो तुमको लेने के लिए ही आए हैं, हम तुम्हारे लिए ही दु:ख झेल रहे हैं।

बहुत से साधक नकली सतलोक में ही रह जाते हैं

काल भगवान को इस तरह की जीवात्मा मिली थी, सृष्टि को इधर इन्होंने बनाया। और उन्हीं (सतपुरुष) के लोक जैसा अपने लोक में लोक बना दिया। जहां बहुत से साधक जाकर के सतलोक समझकर के वहीं पर चुप हो गए। आगे चलने का प्रयास ही उन्होंने छोड़ दिया। वह तो जब समरथ गुरु मिल जाते हैं, फंसा हुआ देखते हैं, इशारा करते हैं, ताली बजा देते हैं, चुटकी बजा देते हैं, धमक दिखा देते हैं तब उसको होश आता है, अरे! हमको तो समरथ गुरु के साथ चलना चाहिए। गुरु महाराज हमको सतसंग सुनाते रहे, गुरु का बांह पकड़ो तो काल कभी रोके नहीं, देवे राह बताये, तो राह बता देगा। तो समझो यह करना चाहिए नहीं तो उन्ही को सब कुछ मान करके, उसी स्थान को सतलोक मानकर के वहीं रह जाते हैं। जब देख लेता है और कोई उपाय नहीं चलेगा, कल बल, छल सब कुछ कर लिया, आंचल मार बुझावे दीपा। जो हमारी देवी थी उसने (दीपक को जो हमारे अंदर जल रहा था) आंचल मार बुझाने की कोशिश किया लेकिन उससे भी यह नहीं रुके। यहाँ तक आ गये तो सतपुरुष का रूप धारण करके आ जाता है। साधकों ऐसे समय पर गुरु को याद करना चाहिए। और गुरु जब आ जायेंगे, गुरु को कभी भी याद करोगे, चाहे शरीर छोड़ कर के चले गए, लेकिन बराबर अंग-संग लगे रहते हैं। बराबर मददगार होते हैं। विंहगंम दृष्टि डालते रहते हैं। देखो, यह कहीं भी भटक न जाए। जैसे हवाई जहाज का संचालन हवाई अड्डे से होता है, वहीं से निर्देश आते, हवाई जहाज चलता रहता है। तो उस समय का अधिकारी होता है। ऐसे ही बराबर वहां से संभाल करते, बराबर निर्देश देते रहते हैं। कभी ऐसा भी होता है कि जैसे दो पायलट होते हैं, दोनों सो गए तो अलार्म बजने लगता है, इंजन से पता चल जाता है, ऐसे ही वहां का सिस्टम भी होता है। उनके सिस्टम से ही यहां का सारा सिस्टम बना है। उसी आध्यात्मिक विद्या से यहां के वैज्ञानिक लोग, चाहे देश के हो, चाहे विदेश के हो, तरक्की किए हैं।

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