धर्म कर्म: कर्मों को कटवाने के नाना उपाय निकालने, बताने वाले, जीवात्मा को निष्कर्म कर अपने असला देश सतलोक जयगुरुदेव धाम ले चलने वाले, वक़्त गुरु, पूरे समरथ सन्त, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित सन्देश में बताया कि धृतराष्ट्र ने कृष्ण से पूछा मैं अंधा क्यों हो गया? तब कृष्ण ने कहा, तुम्हारे कर्म खराब थे, कर्म का फल तुमको मिला है। बोले, इस जन्म में मैंने कोई बुरा कर्म किया ही नहीं। कृष्ण ने कहा पीछे देखो। बोले, 106 जन्म तक मुझे याद है कि मैंने कोई बुरा कर्म नहीं किया। तब कृष्ण ने कहा आंख बंद करो, दोनों आंखों को एक जगह पर टिकाओ, दिव्य दृष्टि से देखो। तब जब उन्होंने देखा तो 106 जन्म के पीछे जो बुरा कर्म हो गया था, उसकी वजह से उनको अंधा होना पड़ा। तो यह कर्म पीछा नहीं छोड़ता है। कर्म बराबर लगा रहता है। इसी कर्म को काटने के लिए लोगों ने बहुत उपाय किया। वेद, उपनिषद, पुराणों में भी कर्म की व्याख्या आई है लेकिन यह कर्म आदमी खत्म नहीं कर पाया। ये न तो तीर्थ में खत्म हुआ, न व्रत में, और न दान-पुण्य में खत्म हुआ। कर्म तो कट ही नहीं पाया। गोस्वामी जी महाराज ने लिखा है कि सुत पुराण वह कहो उपाई, छूट न अधिक, अधिक अर जाही। यह छूटा नहीं और बल्कि उसी में उलझते चले गए, और (कर्म) लदता चला गया। जैसे लोग कहते हैं कि तीर्थों में चल कर नदी में स्नान करो।

नदी में स्नान करने से क्या होता है

अमावस्या पूर्णिमा के दिन सूरज-चंद्रमा की किरणें जब नदी में पड़ती हैं तो एक विशेष तत्व पैदा होता है जिसमें स्नान करने से शरीर स्वस्थ होता है। क्योंकि उस जल में कई तरह की जड़ी-बूटी बह करके आती है। गंगा कहां से निकली? गंगोत्री से। गंगोत्री कहां है? बहुत ऊंचे पहाड़ के ऊपर है। तो पहाड़ पर से जब गंगा उतरती है तो पहाड़ों पर लगे पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियाँ, पत्ते आदि सब नदी में बह कर के आ जाते हैं। सोना-चांदी, घी-दूध, लोहा-तांबा भी बह कर के नदी में आ जाता है। बाढ़ आने पर लोगों के घरों में गड़ा धन भी उसमें चला जाता है। तो उसमें एक तत्व आ जाता है। लेकिन उसी नदी में अगर शहर के नाले का पानी जा रहा हो तो वो तत्व मिलेगा? नहीं मिलेगा। तब तो (स्नान करने से) शरीर और गंदा होगा। और अगर एक साथ बहुत आदमी स्नान करने लग गए तो दाद, खुजली, कोढ़ जो कुछ भी बदन में है, नहाए, मले, धोए तो मैल बहेगा, दूसरे को लगेगा। लेकिन लोगों की भावनाए सोच ऐसी है। चलो ठीक है, धार्मिक भावना तो लोगों में है, जाते तो हैं। धार्मिक भावना के साथ प्रभु को याद करने में हाथ-पैर, आँख-कान लगता तो है। जो लोग गंगा मैया कहते हैं तो मां को याद तो करते हैं और जो ज्यादा पढ़-लिख लिए, जिनका खान-पान, विचार-व्यवहार गलत हो गया वो लोग तो अपनी मां को याद नहीं करते हैं जिसने पेट में नौ महीने रखा, दूध पिलाया, पालन-पोषण किया, टटृटी-पेशाब धोया, उसी को लोग भूल जाते हैं। यह कम से कम गंगा मैया को याद तो रखते हैं।

कहने का मतलब है कि लोग नदियों के किनारे जाते थे और वहां पर कौन रहते थे? महात्मा लोग रहते थे। जहां महात्मा लोग रहते थे, वही तीर्थ स्थान बन गया। तो उनकी बातों को लोग जाते, सुनते, समझते थे। और अब क्या होता है? अब तो ऐसे महात्मा मिलते नहीं है जो विचारों, भावनाओं को बदल दे, मन के ऊपर अंकुश लगा दे तो मन की चंचलता जाती नहीं है। तो कहा जाता है- तीरथ गए चार जन्म, चित चंचल मन चोर, एक्को पाप उतरे नहीं, लाद लिया दस और। अब कैसे लदता है? मन ने चित में चंचलता पैदा कर लिया। किस चीज कि? कहीं धन मिल जाए, इनका रुपया पैसा रखा है, हम इसको उठा लें। कोई सुंदर औरत या सुडौल शरीर वाले पुरुष को देखा तो उस तरफ पुरुष/स्त्री का मन चला गया। अब चित्त में वोही चीज आती रहती है कि इससे बात करने का मौक़ा मिल जाता, कौन है, कहां से है, घर का पता कर लेते आदि। और ये मन चोरी करता है। कैसे? गए, देवता की मूर्ति के सामने खड़े हैं लेकिन चंचल मन चोरी चुपके से दुसरे की औरत/आदमी को देखता है। तो एक पाप तो उतरा नहीं और दस और लाद लिए। इन्ही हाथ-पैर, आँख-कान से गलत कर्म बन गए तो कर्म बने अब उन कर्मों की सजा भोगनी पड़ती है जो अभी आपको बताया कि उससे कोई बच नहीं पाया। (केवल वक़्त गुरु के पास उसका उपाय होता है)

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