धर्म-कर्म: बाबा जयगुरुदेव आश्रम, मक्सी रोड, उज्जैन पर आयोजित मासिक त्रयोदशी भंडारा पर्व पर पूरे समर्थ सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज के सतसंग व् नामदान कार्यक्रम का लाभ लेने के लिए देश के कोने-कोने से आए भक्तगणों को संदेश देते हुए बताया कि, गुरु भक्ति क्या है? गुरु के आदेश का पालन। समय-समय पर गुरु महाराज आदेश दिया करते थे। कुछ आदेश ऐसे हैं जो उनके (इस दुनिया से) जाने के बाद भी अब भी लागू हैं। जिसके लिए वह आदेश देकर जाते हैं, वही उन कामों को पूरा करता है। जो गुरु चाहते थे, उन कामों को वह पूरा करता है तभी वह गुरु भक्त कहलाता है। जैसे सतयुग लाने का है। सतयुग ले भी आओ आप और उसे देखने लायक कोई न रहे तो उसे लाने का क्या फायदा? इसलिए लोगों को सतयुग देखने के लायक बनाओ। शाकाहारी, नशामुक्त, चरित्रवान, निर्लोभी बनाओ, सच्चे रास्ते पर चलने के लिए बताओ तभी तो सतयुग आएगा, तभी तो देखने के लायक बन पाएंगे, नहीं तो भटक जाएंगे।

मंदिरों में जाने से कर्म नहीं कटते बल्कि गलती करने पर और लद जाते है:- 

बहुत से लोग भटक रहे, सही चीज को नहीं समझ पा रहे हैं। जैसे अभी आगामी नवरात्र में लोग कहेंगे कि तीर्थ में चलो, बड़ा मेला लगता है, देवी बड़ी फलदाई है आदि। देखा-देखी में लोग चले जाते हैं। किस लिए जाते हैं? कि फायदा होगा। फायदा किस चीज से होता है? अच्छे कर्म करने से होता है। कर्म ही अगर खराब हो गए तो नुकसान होगा। कहते हैं- जब से दारू पीने, जुआ खेलने लग गया तब से बढ़िया धंधा, बढ़िया कमाई सब खत्म हो गई, एजेंसी-दुकान बंद हो गई, कल-कारखाना खत्म हो गया, उसके कर्म खराब हो गए। तो कर्म ऐसे नहीं काटा जाता है। कर्म काटने का (अलग) तरीका होता है। लोग कहते हैं जाने से फायदा हो जाएगा, यह सोचते नहीं है कि कर्म जब तक नहीं कटेंगे तब तक तकलीफ नहीं जाएगी। देखा-देखी में लोग चले जाते हैं। कहा है- तीर्थ गए चार जन्म, चित चंचल मन चोर। एको कर्म काटे नहीं, लाद लिए दस और।। वहां जाने के बाद दस कर्म और लद जाते हैं। कैसे? मेले में हर तरह के लोगों को देखते हैं, आदमी औरत को और औरतें आदमी को देखने लगते हैं। उनके कपड़ा-लता, सुंदरता, धन-दौलत, रहन-सहन को देखते हैं तो मन खराब होता है। मंदिरों में चले जाओ तो पाओगे कि लोग देवी-देवता की मूर्तियों को कम और आदमी औरतों को ज्यादा देखते हैं। उससे कर्म लदते हैं। मौका पा करके रुपया-पैसा निकाल लेते हैं। चोरी, व्यभिचार की भी आदत सीख जाते हैं, तो देखा-देखी (की आदत) खराब होती है।

जिसने भगवान को देखा नहीं उसकी बनाई पत्थर की मूर्ति को भगवान् मान लेते हैं:- 

जैसे मंदिरों में (एक ही देवी-देवता की) अलग-अलग तरह की मूर्ति, अलग-अलग कपड़े पहने हुए मिलेगी, कई तरह के भगवान कई तरह के कपड़े पहने हुए मिलेंगे। मैं आलोचना बुराई किसी की नहीं करता हूं, सही बात बताता हूं। मंदिर-मूर्ति बनाने वाला, स्थापना करने, मान्यता देने वाला भी आदमी ही होता है, जिसने भगवान को देखा नहीं।

स्वार्थ में लोगों को भरमा दिया, सत्य छूट गया:- 

यह पंडित मुल्ला पुजारी आदि अपने स्वार्थ में लोगों को भरमा दिए, जिनको लोग समझते हैं कि ये भगवान के दरबार के हैं। जो ये कहते हैं, उसी को लोग मान लेते हैं। इस भ्रम में पड़कर के असली चीज को छोड़ देते हैं। सत्य को, और सत्यनारायण की कथा को, सत्यनारायण भगवान् जो सत्य हैं और अंदर में मिलते हैं, उनको छोड़ और बाहरी जड़ पूजा-पाठ में लग जाते हैं। (वक़्त के पूरे गुरु ही जीते जी मुक्ति मोक्ष पाने का, अंदर में प्रभु के दर्शन पाने का रास्ता बताते हैं, उन्ही से आत्म कल्याण होता है।

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