धर्म कर्म: आदि से अंत तक सबकुछ जिनमें समाया हुआ है, ऐसे वक़्त के महापुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि सन्तमत आज का मत नही है, बहुत पुराना मत है। करीब सात सौ बरसों से ये मत चला आ रहा है। और इससे पहले जो वेद मत था, उसमे सारा सन्त मत का सार ही है, उसमे सारा दर्शाया गया है। वेद में जो लिखा गया है, वो किसने लिखा? जिसने सुना, वो लिखा है। और आवाज आई वेद की, जहां सन्तों का धाम (स्थान) है, वहां तक की आवाज वो नहीं थी, नीचे की आवाज थी। लेकिन आभास हो जाता है। कैसे? जैसे किसी पहाड़ी पर देख नहीं पा रहे हैं, लेकिन उधर से गाय-बैल, जानवरों, आदमियों की आवाज आ रही, धुआं हो रहा है तो मालूम हो जाता है की उधर आबादी है। वेद जिनके मुंह से निकला, उनको भी जानकारी है कि आगे कुछ है, इसलिए वेद में नेति नेति (न इति न इति, संस्कृत में जिसका अर्थ है ‘अन्त नहीं है, अन्त नहीं है’ यानी) लिख दिया, आगे कुछ और है। तो आपको को समझने की जरूरत है की सन्त इन सब से परे होते हैं।
वेद मनुष्य के सदमार्ग पर चलने का, सुख शांति के रास्ते पर चलने का बीजक है, मार्गदर्शिका है
वेद की आयतें जब उतरीं, जिसको आकाशवाणी आप कहते हो, ये जब ऋषि मुनियों को सुनाई पड़ा, जो सतयुग में ध्यान तपस्या कर रहे थे, लोगों को बताने के लिए उनको सुनाई पड़ा तो उन्होंने तो खूब बताया। लेकिन बताई हुई बात भूल भी जाती हैं, बताने वाले व्यक्ति के शरीर छूटने के साथ ही चली जाती है, ज्ञान खत्म हो जाता है। लेकिन लिखी हुई चीज को लोग पढ़ करके ज्ञान, जानकारी पा लेते हैं। और उस हिसाब से जब चलने लगते हैं तो सुखी रहते हैं। पहले एक कमाता, दस खाते थे। किसी को खाने की पहनने की दिक्कत नहीं थी। समय पर बरसात-जाड़ा होता था, लोग बहुत खुशहाल थे। लेकिन वो क्या करते थे? जीवों पर दया करते थे, शाकाहारी, बलवान रहते थे, त्यागी बन जाते थे। तो लोग धार्मिक किताबों में लिखी हुई चीजों को जब अपना लेते हैं तो सुखी हो जाते हैं। मैं साधु वेश में हूं, अब मैं अपना कर्तव्य न करूं, मैं आपको, गृहस्थों को कुछ न बताऊं, न समझाऊं तो यह मेरी कमी होगी। तो बताना अपना धर्म होता है। तो उस समय इस चीज को लोग मानते थे कि यह हमारा कर्म, धर्म है कि हम लोगों को समझावें, बतावें तो वो (अच्छा ज्ञान,) चीज जल्दी खत्म नहीं होती थी। लेकिन समय के असर से ये चीजें धीरे-धीरे खत्म होती चली गई। जैसे पहले लोग सुबह-शाम पूजा-पाठ कुछ न कुछ करते ही थे, भगवान का नाम लेते ही लेते थे और अब लोगों नहीं करते, कहते हैं, समय नहीं मिलता, बहुत दौड़ना पड़ता है। बड़ा बिजनेस व्यापार, हविश बढ़ा लेते हैं लोग। नौकरी में लालच बढ़ जाती है। सुबह ही जा करके, दफ्तर खुलवा के बैठ जाते हैं। कोई भी आ जाए तो कुछ हमको अलग से चाय-पानी का इंतजाम कर दे।
तो इस तरह से ये चीज बढ़ जाती है। पहले के समय में ऐसा नहीं था। तब लोगों ने लिखा जिससे इसका ज्ञान हो जाए। तब वेद को ही पढ़ा। उसमें सारा संविधान लिखा हुआ है। मनुष्य के खाने-पीने, रहने-जीने का, भगवान की प्राप्ति का, देवी-देवता के दर्शन का, सब लिखा हुआ है। समझो कि वो इस धरती का संविधान है, मार्गदर्शिका है। मनुष्य के सदमार्ग पर चलने का, सुख-शांति के रास्ते पर चलने का बीजक है, पथ प्रदर्शक है। उसका ज्ञान नहीं था कि लिखा कैसे जाए। वेद व्यास ऋषि थे। उन्होंने क्या किया? सरस्वती जब सामने आ गई, सिर पर सवार हो गई तो जैसे कलम चलती गई ऐसे ही वो लिखते चले गए। जो उनको सुनाई पड़ा, उसी तरह से लिखते चले गए। सुनाई पड़ने वाली भाषा संस्कृत थी। जब वो लिखा तो उन्होंने उस भाषा का नाम रख दिया संस्कृत भाषा। देखो, भारत देश में ही बहुत सी भाषाएं हैं। आप देखो कोई बंगाली लिखता है। किसी ने तोड़-मरोड़ कर के संस्कृत में से निकाल कर बंगाली में लिखा होगा। बहुत से संस्कृत के शब्द बंगाली में भी मिलते हैं, हिंदी, मराठी में भी मिलते है। हर भाषा में संस्कृत के शब्द मिलते हैं। मिला-जुला लोगों ने लिख दिया। अलग से ऐसे हाथ चला कर लिख दिया तो वही भाषा हो गई। उस समय पर जो उन्होंने लिखा, सरस्वती ऐसे हाथ चलाती गई और वो लिखते गए तो वो भाषा संस्कृत भाषा कहलाई। संस्कृत भाषा में वेद व्यास वेद ने लिखा। जो भी वेद को, किताब को पढ़े वो वेद पाठात भवेत विप्र:, वे विप्र कहलाए। जन्मना जायते शूद्रः संस्काराय भवेत द्विज उच्यते। वेदपाठाद् भवेद् विप्रः ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः।। वो वेद को पढ़ते थे तो वेदपाठी ब्राह्मण कहलाए।